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सुस॑मिद्धाय शो॒चिषे॑ घृ॒तं ती॒व्रं जु॑होतन। अ॒ग्नये॑ जा॒तवे॑दसे ॥२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सुस॑मिद्धा॒येति सुऽस॑मिद्धाय। शो॒चिषे॑। घृ॒तम्। ती॒व्रम्। जु॒हो॒त॒न॒। अ॒ग्नये॑। जा॒तवे॑दस॒ इति॑ जा॒तऽवे॑दसे ॥२॥

यजुर्वेद » अध्याय:3» मन्त्र:2


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह भौतिक अग्नि कैसा है, किस प्रकार उपयोग करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य लोगो ! तुम (सुसमिद्धाय) अच्छे प्रकार प्रकाशरूप (शोचिषे) शुद्ध किये हुए दोषों का निवारण करने वा (जातवेदसे) सब पदार्थों में विद्यमान (अग्नये) रूप, दाह, प्रकाश, छेदन आदि गुण स्वभाववाले अग्नि में (तीव्रम्) सब दोषों के निवारण करने में तीक्ष्ण स्वभाववाले (घृतम्) घी मिष्ट आदि पदार्थों को (जुहोतन) अच्छे प्रकार गेरो ॥२॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को इस प्रज्वलित अग्नि में जल्दी दोषों को दूर करनेवाले या शुद्ध किये हुए पदार्थों को गेर कर इष्ट सुखों को सिद्ध करना चाहिये ॥२॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृशः कथमुपयोजनीयश्चेत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(सुसमिद्धाय) सुष्ठु सम्यगिद्धो दीप्तस्तस्मिन्। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुग् [अष्टा०७.१.३९] इति सप्तमीस्थाने चतुर्थी। (शोचिषे) शोधिते दोषनिवारके (घृतम्) आज्यादिकम् (तीव्रम्) सर्वदोषाणां निवारणे तीक्ष्णस्वभावम् (जुहोतन) प्रक्षिपत, सिद्धिरस्य पूर्ववत्। (अग्नये) रूपदाहप्रकाशच्छेदनादिगुणस्वभावे (जातवेदसे) जाते जाते उत्पन्ने उत्पन्ने पदार्थे विद्यमानस्तस्मिन्। जाते जाते विद्यत इति वा। जातवित्तो वा जातधनो जातविद्यो वा जातप्रज्ञानो यत्तज्जातः पशूनविन्दतेति तज्जातवेदसो जातवेदस्त्वमिति। निरु०७.१९.२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्या ! यूयं सुसमिद्धाय सुसमिद्धे शोचिषे शोचिषि जातवेदसे जातवेदसि अग्नये अग्नौ तीव्रं घृतञ्जुहोतन ॥२॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैरस्मिन् प्रदीप्तेऽग्नौ शीघ्रं दोषनिवारकाणि शोधितानि द्रव्याणि प्रक्षिप्य सुखानि साधनीयानीति ॥२॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - प्रज्वलित अग्नी पदार्थांना शुद्ध करतो व सर्व दोष नष्ट करतो त्यासाठी माणसांनी घृत इत्यादी पदार्थ यज्ञात टाकले पाहिजेत. ज्यामुळे इष्ट सुखाची प्राप्ती होऊ शकेल.